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1968 तक ओपीडी ब्लॉक में हमारे पास एक वार्ड (वार्ड ix) था और हम व्यवस्थित हो चुके थे। ऑपरेशन थिएटर नर्सिंग कॉलेज ब्लॉक में थे। रेडियोलॉजी शुरू में नर्स हॉस्टल में था और यह 1968 में मौजूदा स्थान पर शिफ्ट किया गया। उस समय रेडियोलॉजी में 1965 से 1968 तक डॉ. एस. के. घोष थे जिनसे काफी मदद मिली। अक्सर हम सुबह 7.30 बजे वार्ड राउंड, ड्रेसिंग और स्टिच हटाने से शुरूआत करते और उसके बाद न्यूरोरेडियोलॉजी (वेंट्रिकुलोग्राम्स एंजियोग्राम्स इत्यादि) में जाते और फिर इसके बाद सर्जरी होती जो कि हमेशा रात्रि 7 या 8 बजे तक चलती, विशेषकर यदि यह पोस्टीरियर फोस्सा ट्यूमर होता तो। रात में हमने से एक अर्थात् पीएनटी या मैं मुख्य ओटी ब्लॉक के साथ बने डॉक्टर रुम में सोते। 1966 के बाद डॉ. बी. बी. साहनी और डॉ. एम. गौरी देवी, जो अब निम्हैन्स की निदेशक और वाइस चांसलर हैं पर तब न्यूरोलॉजी के रेजीडेंट थे, रात्रि ड्यूटी करके हमारी सहायता करते और सर्जरी में भी हमारी सहायता करते क्योंकि हमारे पास नियमित रेजीडेंट नहीं थे। कर्नल जी. सी. टंडन, जो एनेस्थीसिया के प्रोफेसर थे, की भूमिका अविस्मरणीय है। डॉ. हटंगड़ी के एनेस्थीसिया के लेक्चरों के हमें काफी सहायता मिली और उन्होंने रोगियों की देखभाल के हमारे बोझ को भी साझा किया तथा साथ ही वे हमारे दैनिक कार्यों से भी छुट्टी दे देते थे। उस समय डॉ. हटंगड़ी की वजह से ही मैंने अपनी पत्नी अंजली के साथ दो फिल्में देखी। आगे बढ़ने से पहले मैं ऑपरेशन थिएटर ब्लॉक। एमओटी में कंसल्टेंटस चेंजिंग रूम में अपने पहले दिन के बारे में अवश्य बताना चाहूंगा; जहां में सशंकित होकर इसके वातावरण के बारे में स्वयं ही चला गया। वहां पर केवल एक व्यक्ति ओटी ड्रेस में बैठा था और गंभीरता से अगाथा क्रिस्टी पेपरबैक पढ़ रहा था। अंदर जाने पर उसने मुझसे पूछा कि मैं कौन हूं और फिर सौहार्दता से उठे और मुझसे हाथ मिलाया। वह सर्जरी के आसिसटेंट प्रोफेसर डॉ. सतीश नैयर थे और वह प्रसिद्ध भी थे क्योंकि उन्हें प्राइमरी एफआरसीएस परीक्षा में हैलैट मेडल मिला था। डॉ. सतीश नैयर ने मुझे एक कप चाय दी और फिर कहा कि मुझे कुछ हावी विकसित कर लेनी चाहिए (उनकी हॉबी रहस्यमयी नावल पढ़ना था) क्योंकि असिसटेंट प्रोफेसरों के पास करने के लिए कुछ नहीं होता क्योंकि सभी उपयोगी कार्य प्रोफेसर कर लेते हैं और सभी छोटे कार्य रजिस्ट्रार (बाद में इन्हें रेजीडेंट कहा गया) कर देते हैं। मैं अवसाद से घिर गया जिससे बाहर निकलने में मुझे बहुत समय लगा। एक सप्ताह बाद हिम्मत जुटाकर मैं पीएनटी से इस बारे में बात करने गया। हमने निर्णय लिया कि हम एकांतर मामलों में ऑपरेशन करेंगे और दूसरा उसमें सहयोग करेगा। सब कुछ ठीक चला लेकिन मुझे यह तथ्य परेशान कर रहा था कि यदि वे सहायता करेंगे तो मेरे बाहर आने से पहले बाहर जाकर रोगी के परिवार से बात कर लेंगे। मैं पुन: 1968 में उनके पास गया और पीएनटी ने शालीनता से कहा
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